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सोमवार, 24 नवंबर 2008

कुंवर नारायण को बधाई

वर्ष 2005 का ज्ञानपीठ पुरस्‍कार शीर्षस्‍थ कवि कुंवर नारायण को दिए जाने की घोषणा हुई है. इस मौके पर प्रस्‍तुत हैं उनकी कुछ रचनाएं
पुनश्‍च मैं इस्‍तीफा देता हूं व्‍यापार से परिवार से सरकार से मैं अस्‍वीकार करता हूं रिआयती दरों पर आसान किश्‍तों में अपना भुगतान मैं सीखना चाहता हूं फिर से जीना... बच्‍चों की तरह बढ़ना घुटनों के बल चलना अपने पैरों पर खड़े होना और अंतिम बार लड़खड़ा कर गिरने से पहले मैं कामयाब होना चाहता हूं फिर एक बार जीने में ....... तबादले और तबदीलियां तबदीली का मतलब तबदीली होता है, मेरे दोस्‍त सिर्फ तबादले नहीं वैसे, मुझे ख़ुशी है कि अबकी तबादले में तुम एक बहुत बड़े अफसर में तबदील हो गए बाकी सब जिसे तबदील होना चाहिए था पुरानी दरखास्‍तें लिए वही का वही वहीं का वहीं 'कोई दूसरा नहीं' (राजकमल प्रकाशन) से साभार ............ वे इसी पृथ्वी पर हैं कुंवर नारायण कहीं न कहीं कुछ न कुछ लोग हैं जरूर जो इस पृथ्वी को अपनी पीठ पर कच्छपों की तरह धारण किए हुए हैं बचाए हुए हैं उसे अपने ही नरक में डूबने से वे लोग हैं और बेहद नामालूम घरों में रहते हैं इतने नामालूम कि कोई उनका पता ठीक-ठीक बता नहीं सकता उनके अपने नाम हैं लेकिन वे इतने साधारण और इतने आमफ़हम हैं कि किसी को उनके नाम सही-सही याद नहीं रहते उनके अपने चेहरे हैं लेकिन वे एक-दूसरे में इतने घुले-मिले रहते हैं कि कोई उन्हें देखते ही पहचान नहीं पाता वे हैं, और इसी पृथ्वी पर हैं और यह पृथ्वी उन्हीं की पीठ पर टिकी हुई है और सबसे मजेदार बात तो यह है कि उन्हें रत्ती भर यह अन्देशा नहीं कि उन्हीं की पीठ पर टिकी हुई है यह पृथ्वी । ....... अजीब वक्त है - बिना लड़े ही एक देश- का देश स्वीकार करता चला जाता अपनी ही तुच्छताओं के अधीनता ! कुछ तो फर्क बचता धर्मयुद्ध और कीट युद्ध में - कोई तो हार जीत के नियमों में स्वाभिमान के अर्थ को फिर से ईजाद करता । ( साभार : सामयिक वार्ता / अगस्त-सितंबर, १९९३ )

रविवार, 23 नवंबर 2008

गर मुहब्बत ज़माने में है इक खता

श्रद़धा जैन की ग़ज़लें ही उनका परिचय है.
नव्‍यवेश


ग़ज़लें
आप भी अब मिरे गम बढ़ा दीजिए
मुझको लंबी उमर की दुआ दीजिए

मैने पहने है कपड़े, धुले आज फिर
तोहमते अब नई कुछ लगा दीजिए

रोशनी के लिए, इन अंधेरों में अब
कुछ नही तो मिरा दिल जला दीजिए

चाप कदमों की अपनी मैं पहचान लूं
आईने से यूँ मुझको मिला दीजिए

गर मुहब्बत ज़माने में है इक खता
आप मुझको भी कोई सज़ा दीजिए

चाँद मेरे दुखों को न समझे कभी
चाँदनी आज उसकी बुझा दीजिए

हंसते हंसते जो इक पल में गुमसुम हुई
राज़ "श्रद्धा" नमी का बता दीजिए
---

जब मिटा के शहर गया होगा
एक लम्हा ठहर गया होगा

है, वो हैवान ये माना लेकिन
उसकी जानिब भी डर गया होगा

तेरे कुचे से खाली हाथ लिए
वो मुसाफिर किधर गया होगा

ज़रा सी छाँव को वो जलता बदन
शाम होते ही घर गया होगा

नयी कलियाँ जो खिल रही फिर से
ज़ख़्म ए दिल कोई भर गया होगा

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

हाथ कंगन को 'आरसी' क्‍या

हिंदी भाषा में एक भरा पूरा ब्‍लॉग जगत है. हर दिन धडाधड नए ब्‍लॉग बन भी रहे हैं. किसी भी भाषा के विकास के लिए इस तरह के काम बेहद ज़रूरी होते हैं. लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं में अभी इस तरह का रुझान पैदा नहीं हुआ. हालांकि नैट पर इन भाषाओं में ब्‍लॉग बनाने की सुविधा है. पंजाबी के बारे में भी ऐसा ही कहा जा सकता है. भले ही पंजाबी लोग पूरे विश्‍व में फैले हुए हैं, लेकिन पढ़ने लिखने की बात आए, तो...
खैर, पिछले दिनों कनाडा से मित्र तनदीप तमन्‍ना ने पंजाबी भाषा में 'आरसी' नाम से ब्‍लॉग शुरू किया है. खुशी हुई कि पंजाबी में इस तरह के रुझान की शुरुआत हुई है. तनदीप स्‍वयं पंजाबी की एक अच्‍छी कवियित्री हैं. जिन लोगों को गुरमुखी स्क्रिप्‍ट पढ़नी आती हो, वह एक बार ज़रूर इस पर विजिट करें।

सोमवार, 22 सितंबर 2008

रात के तीसरे पहर एक स्त्री जूड़ा बांधती है

इस बार मिलिए रवींद्र व्‍यास से. हिंदी के युवा कहानीकार और चित्रकार रवींद्र की कविताओं की तरलता अलग-से ध्यान खींचती है। इंदौर में रहते हैं। इन दिनों ब्लॉगजगत में इनकी उपस्थिति की भी बड़ी चर्चा है।

रात के तीसरे पहर एक स्त्री जूड़ा बांधती है / रवींद्र व्‍यास

बिल्ली उसके अधूरे स्वप्न पर
दूध ढोल जाती है
चूहे उसकी नींद को कुतरने लगते हैं
मटके में भरा ताजा पानी रिसते रहता है
उनके तकिये पर छिपकली गिरती है
रात के तीसरे पहर में
एक स्त्री की नींद टूटती है
और वह हड़बड़ाकर बैठ जाती है
जिस दिवाल से वह
पीठ टिकाकर बैठती है
उस पर मकड़ी अपना जाला बुनती रहती है
रात के तीसरे पहर
वह स्त्री अपने खुले बालों को झटकती है
और जूड़ा बांध लेती है


गर्दन के नीचे हबा हाथ
यह इश्तहार ही हो सकता है
जो स्त्री का दु:ख
उसके सफेद होते बालों में देखता है
वह स्त्री अपनी शादी की तस्वीर के पीछे से
मकड़ी को सरकता देख सिहर जाती है
जिस आईने में देख वह बिंदी लगाती है
उसके पीछे से एक छिपकली निकलती है
और मकड़ी को चट कर जाती है
वह चौंकती नहीं
बस, अपने पास सोए आदमी को देखती है
जिसका हाथ उसकी छाती पर
जन्म-जन्मांतरों से पड़ा हुआ है
असंख्य तारे झिलमिलाते रहते हैं
और चंद्रमा सरकता रहता है
सुबह वह स्त्री
अपना दाहिना हाथ झटकती है
जो पति की गर्दन के नीचे दबा रह गया था

रविवार, 14 सितंबर 2008

पूरन का कुआं

पूरन भक्त की कुर्बानी और सामंती दौर में अपनी परंपराओं से जुड़े रहने के बदले में मिली मौत से भी बदत्तर सजा की कहानी पंजाब के बच्चे-बच्चे की जबान पर है। पूरब ही नहीं पश्चिमी पंजाब का भी हर बाशिंदा इस कहानी को अपने मन में बसाए हुए है...

उस दिन राजे सलवान के घर पूरन ने जन्म लिया, उसी दिन लद्धी के घर में दुल्ला पैदा हुआ था। यह अकबर के राज्यकाल का समय था।Ó फरूखाबाद के रहने वाले और वारिस शाह फाउंडेशन के प्रधान मोहम्मद वारसी बहुत उत्साह से बता रहे थे। हमारे पास लाहौर हाईकोर्ट के जज जनाब अकरम बिट्टु, जो साईं मीयां मीर दरबार लाहौर के चेयरमैन भी हैं, की गाड़ी की और हम लाहौर से सियालकोट के शाहराह पर जा रहे थे। मेरे साथ अमृतसर के हरभजन सिंह बराड़ और साईं मीयां मीर इंटरनैशनल फाउंडेशन की लुधियाना इकाई के प्रधान भुपिंदर सिंह अरोड़ा थे। मोहम्मद वारसी हीर बहुत अच्छा गाते हैं और रास्ते में उनके मीठे बोल हमारे कानों में मिठास घोलते रहे। बीच-बीच में वह हमें इर्द-गिर्द की जानकारी देते रहे।सियालकोट में हम नजीर साहिब के घर ठहरे। सियालकोट से ढाई-तीन किलोमीटर दूर पूरन भक्त के ऐतिहासिक कुंएं का सेवादार है। उसे हमारे आने का पहले से ही मालूम था, इसलिए वह अपने परिवार समेत हमारा इंतकाार कर रहा था। वह 75 वर्ष का सादा मिजाज व्यक्ति था। उसकी पत्नी हमें बहुत अदब से ले गई और कहने लगी कि उसने साठ साल बाद सरदार देखे हैं। उसने बताया कि बंटवारे के वक्त वह दस वर्ष की थी और कुछेक धुंधली यादें अभी भी उसके मन में हैं।नजीर को साथ लेकर हम बाहर निकले, तो बस स्टैंड के पास खान स्वीट शॉप वाले ने हमारा रास्ता रोक लिया। वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और कहने लगा कि मेरी दुकान से लस्सी पीकर कारूर जाना। यही नहीं हमें देखकर इर्द-गिर्द आ पहुंचे लोगों को भी उसने लस्सी पिलाई। लगभग 20-25 गिलास लस्सी उसने पिला दी। बराड़ साहिब ने पैसे देने के लिए पर्स निकाला, तो वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, 'सरदार साहिब, पैसे किसलिए? मैं तो बहुत खुश हुआ हूं अपने भाइयों के दर्शन करके। इसी तरह आते-जाते रहा कीजिए।Ó वह पीछे से पठानकोट का रहने वाला था। बंटवारे का दर्द उसकी आंखों में भी था।हम पूरन के कुंएं के पास पहुंच गए। बहुत बड़े घेरे में वृक्षों के झुंड में यह बहुत ही अद्भुत नकाारा था। नजीर बोला, 'बंटवारे से पहले यहां हकाारों हिंदू आते थे। इस कुंएं की बहुत मान्यता थी। लोग इसका जल अपने घरों में ले जाते थे। इस कुंएं के पानी से नहाने से कई बीमारियों से मुक्ति मिलती है, यह लोगों का मानना था। अब मुस्लिम लोग भी आते हैं।Ó वह बातें कर रहा था, तो मैं उसकी भाषा पर ध्यान दे रहा था। उसकी भाषा से डोगरी बोली की महक आ रही थी। मैंने उसे इसके बारे में पूछा, तो कहने लगा कि जम्मू यहां से कयादा दूर नहीं। शायद इलाके का असर हो।पूरन के कुंएं के नकादीक नानकशाही र्ईंटों से बना हुआ वह कमरा भी है, जिसमें पूरन को कुंएं से निकालकर रखा गया था। नजीर ने अपनी मीठी डोगरी भाषा में पूरन की कथा सुना दी। मैंने कुछ अंश शिव कुमार बटालवी की 'लूणाÓ में से सुनाए। नजीर ने वह जगह दिखाई, जहां राजा सलवान का बाग था। पूरन की अंधी हो चुकी मां इच्छरां भी उसे इसी बाग में मिली थी। पास ही गुरु गोरखनाथ का टिल्ला था। मुझे इन ऐतिहासिक जगहों पर घूमना अच्छा लग रहा था। टिल्ले पर पहुंचकर वारसी से रहा न गया। वह ऊंची आवाका में गाने लगा—तेरे टिल्ले त्तों सूरत दींहदी हीर दी,औह लै वेख गोरखा, उडदी ऊ फुलकारी।
-तलविंदर सिंह
(लेखक पंजाबी कथाकार हैं)

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

अव्‍वल आख सुना ख़ुदा ताईं...

कादरयार
पंजाब में 'किस्‍सों' की एक अलग परंपरा है. यह परंपरा साहित्‍य तक ही सीमित नहीं, पंजाबी समाज में भी इसकी जड़ें गहरी हैं. एक समय था, जब पंजाब में मनोरंजन का साधन यह किस्‍से ही हुआ करते थे. चौपालों में इकट्ठे होकर लंबी सद लगाकर इन किस्‍सों को गाया जाता था. मध्‍यकाल में इन किस्‍सों की रचना होती है. कई साहित्‍यकार किस्‍सों के रूप में प्रेम कहानियों को पेश करते रहे. यह प्रेम कहानियां इन किस्‍सों से पहले पंजाबी जन जीवन और जन मानस को प्रभावित कर चुकी थीं.
'किस्‍सा' शब्‍द की उत्‍तपति अरबी भाषा के 'कस' शब्‍द से हुई है, जिसके अर्थ कथा, कहानी या गाथा ही हैं. किसी घटना या कहानी को एक विशेष तरीके से पेश करने को 'किस्‍सा' कहा जाता है. यह कहानी प्रेममय, ऐतिहासक, मिथिहासिक या रोमांचक कोई भी हो सकती है. किस्‍सा मूल रूप में काव्‍य रूप है. दुनिया में प्रसिि‍द्ध प्राप्‍त कर चुके किस्‍से 'हीर राझा की रचना दमोदर ने की थी. इस रचना को पहली प्रमाणिक किस्‍सा रचना होने का श्रेय है. इसके साथ ही पीलू, हाफिज बरखुरदार और अहमद आदि ने इस क्षेत्र में प्रवेश किया.
कादरयार के बारे में
यहां जिस किस्‍साकार का तआरुफ आपसे कराया जा रहा है, वो है कादरयार.
कादरयार का जन्‍म गांव माछीके, जिला गुजरांवाला (पाकिस्‍तान) में हुआञ कादरयार जाति का संधू जट्ट था. उसकी जन्‍म तिथि के बारे में विद्वानों में मतभेद हैं. परंतु उसकी जन्‍म तिथि का अंदाज़ा उसकी रचना 'महराजनामा' में दिए उसके बयान से लगाया जा सकता है. प्रिंसिपल संत सिंह सेखों के मुताबिक 'महराजनामा' की रचना 1832 ईस्‍वी में हुई. इस हिसाब से वह उनका जन्‍म 1805 ईस्‍वी के नज़दीक मानते हैं. मुसलमान होते हुए भी कारदयार को हिंदू मिथिहास, इतिहास के बारे में भरपूर जानकारी थी. उसने अपने मुरशद लाल शाह से शर्रा की शिक्षा हासिल की. कादरयार की क़ब्र उसके मुरशिद की क़ब्र के पास ही बनाई गई. बताते हैं कि यह क़ब्र अब भी मौजूद है. कादरयार ने 'सोहणी म‍हीवाल', जैसे किस्‍से के अलावा हिंदू मिथिहास पर आधारित किस्‍सा 'राजा रसालू' और 'पूरन भगत' की रचना भी की.
किस्‍सा पूरन भगत पंजाबी जनमानस में रचा बसा किस्‍सा है. इस किस्‍से में वर्णित जगहें वास्‍तव में मिलती हैं. सियालकोट में पूरन के नाम का कुंआ आज भी मौजूद है. यहां किस्‍सा 'पूरन भगत' से कुछ लाइनें आपसे सांझा कर रहा हूं—


अलिफ आख सखी सियालकोट अंदर, पूरन पुत सलवान ने जाया ई.
जदों जम्‍मया राने नूं ख़बर होई, सद पंडितां वेद पड़ाया ई.
बारां बरस ना राजेया मूंह लगीं, देख पंडितां एव फरमाया ई.
कादरयार मियां पूरन भगत ताईं, बाप जम्‍मदेयां ही भोरे पाया ई.

मंगलवार, 12 अगस्त 2008

महमूद दरवेश

फ़लीस्‍तीन के कवि महमूद दरवेश का पिछले दिनों निधन हो गया. वह 67 साल के थे. उनकी कविता फ़लीस्‍तीनी सपनों की आवाज़ है. वह पहले संग्रह 'बिना डैनों की चिडि़या' से ही काफ़ी लोकप्रिय हो गए थे. 1988 में यासिर अराफ़ात ने जो ऐतिहासिक 'आज़ादी का घोषणापत्र' पढ़ा था, वह भी दरवेश का ही लिखा हुआ था. उन्‍हें याद करते हुए कुछ कविताएं यहां दी जा रही हैं. इनका अनुवाद अनिल जनविजय ने किया है.



एक आदमी के बारे में

उन्होंने उसके मुँह पर जंज़ीरें कस दीं
मौत की चट्टान से बांध दिया उसे
और कहा- तुम हत्यारे हो

उन्होंने उससे भोजन, कपड़े और अण्डे छीन लिए
फेंक दिया उसे मृत्यु-कक्ष में
और कहा- चोर हो तुम

उसे हर जगह से भगाया उन्होंने
प्यारी छोटी लड़की को छीन लिया
और कहा- शरणार्थी हो तुम, शरणार्थी

अपनी जलती आँखों
और रक्तिम हाथों को बताओ
रात जाएगी
कोई क़ैद, कोई जंज़ीर नहीं रहेगी
नीरो मर गया था रोम नहीं
वह लड़ा था अपनी आँखों से

एक सूखी हुई गेहूँ की बाली के बीज़
भर देंगे खेतों को
करोड़ों-करोड़ हरी बालियों से


गुस्सा

काले हो गए
मेरे दिल के गुलाब
मेरे होठों से निकलीं
ज्वालाएँ वेगवती
क्या जंगल,क्या नर्क
क्या तुम आए हो
तुम सब भूखे शैतान!

हाथ मिलाए थे मैंने
भूख और निर्वासन से
मेरे हाथ क्रोधित हैं
क्रोधित है मेरा चेहरा
मेरी रगों में बहते ख़ून में गुस्सा है
मुझे कसम है अपने दुख की

मुझ से मत चाहो मरमराते गीत
फूल भी जंगली हो गए हैं
इस पराजित जंगल में

मुझे कहने हैं अपने थके हुए शब्द
मेरे पुराने घावों को आराम चाहिए
यही मेरी पीड़ा है

एक अंधा प्रहार रेत पर
और दूसरा बादलों पर
यही बहुत है कि अब मैं क्रोधित हूँ
लेकिन कल आएगी क्रान्ति

आशा

बहुत थोड़ा-सा शहद बाक़ी है
तुम्हारी तश्तरी में
मक्खियों को दूर रखो
और शहद को बचाओ

तुम्हारे घर में अब भी है एक दरवाज़ा
और एक चटाई
दरवाज़ा बन्द कर दो
अपने बच्चों से दूर रखो
ठंडी हवा

यह हवा बेहद ठंडी है
पर बच्चों का सोना ज़रूरी है
तुम्हारे पास शेष है अब भी
आग जलाने के लिए
कुछ लकड़ी
कहवा
और लपटॊं का एक गट्ठर


जाँच-पड़ताल

लिखो-
मैं एक अरब हूँ
कार्ड नम्बर- पचास हज़ार
आठ बच्चों का बाप हूँ
नौवाँ अगली गर्मियों में आएगा
क्या तुम नाराज़ हो?

लिखो-
एक अरब हूँ मैं
पत्थर तोड़ता है
अपने साथी मज़दूरों के साथ

हाँ, मैं तोड़ता हूँ पत्थर
अपने बच्चों को देने के लिए
एक टुकड़ा रोटी
और एक क़िताब

अपने आठ बच्चों के लिए
मैं तुमसे भीख नहीं मांगता
घिघियाता-रिरियाता नहीं तुम्हारे सामने
तुम नाराज़ हो क्या?

लिखो-
अरब हूँ मैं एक
उपाधि-रहित एक नाम
इस उन्मत्त विश्व में अटल हूँ

मेरी जड़ें गहरी हैं
युगों के पार
समय के पार तक
मैं धरती का पुत्र हूँ
विनीत किसानों में से एक

सरकंडे और मिट्टी के बने
झोंपड़े में रहते हूँ
बाल- काले हैं
आँखे- भूरी
मेरी अरबी पगड़ी
जिसमें हाथ डालकर खुजलाता हूँ
पसन्द करता हूँ
सिर पर लगाना चूल्लू भर तेल

इन सब बातों के ऊपर
कृपा करके यह भी लिखो-
मैं किसी से घृणा नहीं करता
लूटता नहीं किसी को
लेकिन जब भूखा होता हूँ मैं
खाना चाहता हूँ गोश्त अपने लुटेरों का
सावधान
सावधान मेरी भूख से
सावधान
मेरे क्रोध से सावधान

सोमवार, 7 जुलाई 2008

एक पुरुष कभी एक स्त्री को नहीं चूमता

मित्र विमल कुमार की यह कविता मेरी पसंदीदा कविताओं में से है। कविता संग्रह 'ये मुखौटा किसका है' और  'सपने में एक औरत से बातचीत'' के जरिए काव्य जगत में शामिल हैं। पेशे से पत्रकार।

एक पुरुष कभी एक स्त्री को नहीं चूमता
Painting by: Mark Yale Harris 

क्योंकि उसके पास एक शरीर था
मेरी बांहों में झूलने से लेकर
आसमान तक उडऩे में
उसके पास वही शरीर था
वही केश-राशि, वही आंखें
पर वह इस यात्रा में कई बार बदल चुकी थी
जैसे आज तक न जाने कितनी बार
उसकी बिंदी बदली थी माथे पर

वह एक ही स्त्री थी
पर कई अर्थ देती थी मुझे
कई पंख देती थी
कई रंग, कई गंध


मैं भीएक ही पुरुष था
क्योंकि एक ही शरीर था मेरे पास
उसे चूमने से लेकर
उसे सताने तक एक ही शरीर
वही भुजाएं, वही जंघाएं
वही दर्प, वही तेज
पर इस यात्रा में मैं भी बदल चुका था कई बार
जैसे कई बार मैं अपना घर बदल चुका था
मैं भी कई अर्थ देता था उसे
कई ध्वनियां, कई फूल
कई पत्थर, कई पुल

वह एक ही स्त्री थी हर बार बदलती हुई
कई हज़ार स्त्रियों को अपने भीतर छुपाए हुए
मैं भी एक ही पुरुष था हर बार बदलता हुआ
अपने भीतर कई हज़ार पुरुषों को छिपाए

इसलिए जब वह मुझसे प्यार करती थी
कई हज़ार स्त्रियां मुझसे प्यार करती थीं
जब वह शिकायत करती थी
कई हज़ार स्त्रियां मुझसे शिकायत करती थीं

जब मैं उसे चूमता था
कई हज़ार पुरुष उसे चूमते थे
जब मैं उससे झगड़ता था
कई हज़ार पुरुष उससे झगड़ते थे

दरअसल एक स्त्री कभी एक पुरुष से प्यार नहीं करती
एक पुरुष भी कभी एक स्त्री को नहीं चूमता
अपने जीवन में


Painter : Mark Yale Harris was Born in Buffalo, New York, He spent his childhood enthralled in a world of drawing and painting. Though honored for creative endeavors.



शनिवार, 7 जून 2008

शाह-ओ दरवेश-ओ कलंदर...

मेरे पसंद के सूफि़यों में दूसरा नाम है सरमद। सरमद का लफ़ज़ी अर्थ 'आदि और अंत से रहित' है। जो अजर-अमर है, जो सदा जीवित है, वही सरमद है। जो समय स्‍थान से परे है, जो अनंत-असगाह है, वह सरमद है। सूफी दरवेश सरमद औरंगज़ेब के समय में हुआ। सबमें एक ही नूर को देखने वाला वह मस्‍त फ़कीर था। आधा कलमा 'लाइलाह' पढ़ता और नंगा रहता। बाहरी शरियत के उसके लिए कोई मायने नहीं थे। यही कारण था कि सत्‍य से समझौता न करने पर उसने शहादत का जाम पीना मंजूर किया। सरमद का सिर कलम कर दिया गया, सिर्फ़ इसलिए कि उसने कट्टर शरियत के बंधनों को स्‍वीकार करने से इंकार कर दिया। दोष यह लगाया गया कि वह पूरा क़लमा नहीं पढ़ता और नंगा रहता है। यह शरियत के खि़लाफ़ है। दिल्‍ली में जामा मस्जिद के सामने चबूतरे पर उसका सिर कलम किया गया। वहां अब उसका मज़ार बना हुआ है। सरमद आरमीनीया का यहूदी था। उसका जन्‍म ईरान के प्रसिद्ध तिजारती केंद्र काशान में हुआ। उसके पूर्वज किसी समय आरमीनीया के निवासी थे, लेकिन बाद में वे ईरान में आ बसे थे। कुछ इतिहासकारों ने उसका नाम मुहम्‍मद सईद माना है, जो मुस्लिम नाम है। यह भी सच है। सरमद यहूदी ख़ानदान का नौनिहाल था, जो बाद में इस्‍लाम में दाखि़ल हुआ। इस बात को वह ख़ुद भी स्‍वीकार करता है।

इस्‍लाम धारण करने और हिंदुस्‍तान आने से पहले सरमद काशान में अपना पैतृक काम व्‍यापार करता रहा। हिंदुस्‍तान में भी वह व्‍यापारिक सिलसिले में आया। यहां वह कई सथानों पर घूमता रहा। सरमद की जन्‍म तिथि के बारे में पक्‍की तरह नहीं कहा जा सकता। इतिहासकार उसका जन्‍म 1618 मानते हैं। उसका अध्‍ययन विशाल था। यहूदी परंपरा के अनुसार बचपन में सरमद को यहूदी धर्म-ग्रंथों के पाठ और व्‍याख्‍या में पारंगत कर दिया गया था। उसने सामी धर्मां के ग्रंथों का भी गहरा अध्‍ययन किया, लेकिन उसकी प्‍यास न मिटी। फिर उसने इस्‍लामी ओर पारसी धर्म ग्रंथों का भी अध्‍ययन किया। सरमद का क़लाम रुबाइयों की शक्‍ल में प्राप्‍त है। रुबाई चार पक्तियों का एक छोटा काव्‍य रूप है। फ़ारसी के सूफी शायरों ने अपनी रचना के लिए इसी रूप को अपनाया है। सरमद ने कुल 334 रुबाइयां रची हैं। फारसी में रची गई इन रुबाइयों को प्रसिद्ध विद्वान सूबा सिंह ने पंजाबी में अनुवाद किया था। यहां उसी का हिंदी रुपांतरण पेश है-

फारसी
शाह-ओ दरवेश-ओ कलंदर दीदह ई।
सरमद-ए-सरमस्‍त-ओ-रुसवा रा ब-बीं

क्‍या तुमने बादशाह, दरवेश और कलंदर को कभी देखा ?
अगर नहीं, तो आ, मदमस्‍त और बदनाम सरमद को देख लो।
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मा सरे-खुद रा चो कोह-ओ-ज़ेरे-पा दानिस्‍ता ऐम
शहर-ए-दिहली रा ब-साने-करबला दानिस्‍ता ऐम
रफ़त मनसूर अज़ कज़ा-ओ रफ़त सरमद नीज़ हम
दाहरा रा अज़ अता-ए-किबरीया दानिस्‍ता ऐम

हमने अपने सिर को पहाड़ की तरह पैरों में जाना है।
हमने दिल्‍ली शहर को करबला जाना है
कज़ा के साथ मनसूर चला गया और सरमद भी गया समझो
हमने सूलियों फ़ासियों को रब्‍बी बख्शिश समझा है
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किसी वक्‍़त न दुनिय पर चैन पाया
ना ही ऐश का कभी सामान किया
दुख-ओ दर्द ने दबोचा है उम्र सारी
और धक्‍कों ने है परेशान किया
दौलत दुनिया की दुखों की खान होती
इसने हर तरह सदा नुकसान किया
इसकी कमी बुरी, ज्‍़यादा दुख देवे
सुखी इसने न कोई इंसान किया।
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दिखाई देता जग-जहान तो है फानी
खुशिया मना, नहीं तो क्‍या मनाओगे
हो शाह या कोई फ़क़ीर हो
सबने उठ संसार से जाना है
यह छोटी-सी जिंदगी मिली तुम्‍हें
यह न गाफली में गंवा देना
सूरत यार की रखना मन में तुम
एक पल भी न उसे भुला देना।

सोमवार, 19 मई 2008

वजीदा कौण साहिब नूं आखै ...

सूफियों में वजीद मुझे बेहद पसंद हैं- अपनी बेबाकी और स्‍पष्‍टवादिता के कारण। यह सपष्‍टवादिता सर्वशक्तिमान को भी सीधा सवाल दागती है। वजीद ने किस काल में इस पृथ्‍वी पर विचरण किया, निश्‍चित रूप में कुछ नहीं कहा जा सकता। ज्‍यादातर विद्वान इस मत पर सहमत हैं कि उनका समय सोलहवीं-सतरहवीं शताब्‍दी के मध्‍य का समय था। उनकी रचना से मिलते कुछ हवालों से अनुमान लगाया जाता है कि सूफ़ी वेश धारण करने से पहले वह किसी श्रेष्‍ठ फ़ौजी पद पर कार्यरत थे। वजीद की ज्‍यादा रचना श्‍लोकों के रूप में है।

वजीद के श्‍लोक

मूरख नूं असवारी, हाथी घो‍ड़ेयां
पंडित पैर प्‍यादे, पाटे जोड़ेयां
करदे सुघड़ मजूरी, मूरख दे जाए घर
वजीदा कौण साईं नो आखे, एयों नई अंझ कर।
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गउंआं देंदा घाह, मलीदा कुत्‍तेयां
जागदेयां थीं खोह के देंदा सुत्‍तेयां
चहूं कुंटी है पाणी, तालु, सर ब सर
वजीदा कौण साहिब नो आखै, एयों नई अंझ कर
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चोर जु करदे चोरी, लिआवण लुट घर।
खांदे दुध मलाई, मलीदे कुट कर।
रहंदे तेरी आस सु, जांदे भुख ‍मरि।
वजीदा कौण साहिब नो आखै, एयों नई अंझ कर।
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इकना नूं घयो खंड, न मैदा भावई।
बहुती बहुती माया चल्‍ली आवई।
इकना नाही साग, अलूणा पेट भर।
वजीदा कौण साहिब नूं आखै, एयों नई अंझ कर।
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सूफ़ी कवि वजीद के बारे में बहुत सारे साथियों की टिप्‍पणियां प्राप्‍त हुईं। ज्‍यादातर दोस्‍तों ने वजीद के श्‍लोकों का हिंदी अनुवाद देने के लिए कहा है। में यहां इन श्‍लोकों की सरल-सी व्‍याख्‍या दे रहा हूं।
श्‍लोक 1 की व्‍याख्‍या
मूर्ख को हाथी-घोड़ों पर सवारी करने के मौके मिलते हैं। पंडित यानी समझदार लोगों को पैदल ही चलने पर मजबूर होना पड़ता है और फटे हुए कपड़ों में ही गुजर-बसर करना पड़ता है। इसी तरह सुघड़ यानी मंजे हुए या समझदार लोगों को मूर्खों के पास जाकर मजदूरी करनी पड़ती है, काम करना पड़ता है। वजीद कहते हैं कि उस साईं को, ख़ुदा को कौन कह सकता है कि वह ऐसा न करके वैसा करे।

श्‍लोक 2 की व्‍याख्‍या
गौओं को घस देता है और कुत्‍तों को मलीदा यानी चूरी खाने के लिए देता है। यही नहीं, जग रहों से छीनकर सोए हुए लोगों को दे देता है। उस साहिब को कौन कह सकता है कि वह ऐसा न करे।

श्‍लोक 3 की व्‍याख्‍या
वजीद इसमें कहते हैं कि चोर चोरियां करते हैं, लोगों को लूटते हैं, दूध मलाई और चूरियां खाते हैं यानी बुरे काम करने पर भी सबसे अच्‍छा जीवन व्‍यतीत करते हैं। लेकिन जो तुम्‍हारी यानी भगवान पर विश्‍वास रखते हैं, वे भूखे मरते हैं। वजीद कहते हैं कि ऐसा करने पर भी कौन उस साहिब को, उस परमात्‍मा को कह सकता है कि वह ऐसा न करे।

श्‍लोक 4 की व्‍याख्‍याइस श्‍लोक में वजीद कह रहे हैं, दुनिया में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्‍हें खाने के लिए घी, शक्‍कर और मैदे से बनी अच्‍छी-अच्‍छी वस्‍तुएं मिलती हैं, लेकिन वह उन पर भी नाक-भौं सिकोड़ते हैं। परंतु दूसरी तरफ़ ऐसे भी लोग हैं, जिन्‍हें पेट भरने के लिए अन्‍न का एक दाना भी नसीब नहीं होता। ऐसे में भी उस साहिब को कौन कह सकता है कि वह ऐसा न करे।

रविवार, 4 मई 2008

चार छोटी कविताएं/नव्‍यवेश नवराही

तुम हँसती
तुम हँसती-
फूल खिलते
उड़ान भरते हैं पंछी
सुगंधित हो जाती हवा
जब तुम हँसती

खिड़की
आप जिस खिड़की से देख रहे हैं
ज़रूरी नहीं
वो सही ही हो।
देख जाने वाले
उस दृश्य के कई पक्ष
हो गए होंगे औझल
आपकी आँख से।

प्रिय तुम...
प्रिय तुम उदास मत होना
कैसी भी हों राहें, मुश्किलें
अपनी यह निर्दोष मुस्कान
मत खोना
पतझड़ भी तो एक पड़ाव है
किसी अंजान
मंजिल की ओर बढ़ती
हसीन बहार का...
लेकिन तुम धैर्य मत खोना
प्रिय, तुम उदास मत होना।

'हैलो' मंत्र
मन में
जब भी गुस्से की बिजली कौंधती
खून में फैलता नफ़रत का ज़हर
फ़ोन पर
तुम्हारा एक ही शब्द-
'हैलो...'
मंत्र फूँकता
सब हलचलों को शांत कर देता