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शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

इंट्रोवर्ट हैं तो खुद को बिल्कुल न बदलें!


सुजेन केन
प्रोफाइल : लेखक बनने से पहले 7 साल जेपी मॅार्गन और जनरल इलेक्ट्रि जैसी कंपनियों की कंसल्टेंट थीं।
क्यों पढ़ें: इसे अब त· ३५ लाख से ज्यादा लोग विभिन्न वेबसाइट्स पर सुन चुके हैं।

मैं जब 9 साल की थी तब पहली बार समर कैंप में गई। मां ने मेरे लिए जो सूटकेस तैयार किया उसमें किताबें भरी थीं। आप लोगों को शायद ये थोड़ा अजीब लगे लेकिन मेरे परिवार में किताबें पढऩा सबसे जरूरी गतिविधि रही है। मैने दिमाग में छवि बनाई थी कि कैंप में मुझे किताबें पढ़ती कुछ लड़कियां नजर आएंगी। लेकिन जब मैं वहां पहुंची वो किसी पार्टी की तरह लगा। मैं इंतजार कर रही थी कब मुझे वापस कमरे में जाकर किताब पढऩे का मौका मिले। पर जब भी मैं किताब पढऩे जाती तो मुझसे पूछा जाता मैं क्यों उदास हूं। पूरे समर कैंप में मैंने किताबों को देखा तक नहीं। मैंने कैंप में 50 बातें महसूस की जिससे मुझे लगा कि मुझे एक्स्ट्रोवर्ट होना चाहिए। कहीं अंतर्मन में यह बात हमेशा थी कि इंट्रोवट्र्स जैसे हैं उसी रूप में बेहतरीन हैं। पर शायद यह बात मानने में मुझे सालों लग गए इसलिए मै वॉल स्ट्रीट लॉयर बन गई। जबकि मैं हमेशा से लेखही बनना चाहती थी। मैनें वो सब किया जो औरों को तो सही लगा,  मुझे नहीं। दुनिया के अधिकांश इंट्रोवट्र्स ऐसा ही करते हैं।
इंट्रोवट्र्स शर्मीले नहीं होते। उनकी अभिव्यक्ति का तरीका अलग होता है। मुझे लगता है हमारे स्कूल और दफ़तर एक्स्ट्रोवट्र्स को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं। गणित जैसे विषय, जहां हमें अकेले लडऩा होता है वहां भी ग्रुप असाइनमेंट दिए जाते हैं। मैं आपको बता दूं कि एलिनोर रूजवेल्ट, महात्मा गांधी ने स्वयं को शांत और शर्मीला बताया था। जिनके शरीर का हर अंग स्पॉटलाइट से दूर रहना चाहता था। लेकिन उन्होंने इतिहास रचा। स्टीव वोजनिएक ने पहला एपल कंप्यूटर हैवलेट पैर्ड में अकेले बैठकर बनाया था।
इसका अर्थ यह नहीं कि हम सारे डार्विन की तरह जंगलों में घूमें। बुद्ध की तरह ख़ुद ही अपनी चीजें खोजिए। ये देखें कि आपके सूटकेस में किताबें हो या कुछ और उन्हें बदलिए मत। इंट्रोवट्र्स आप जैसे हैं उसी मैं आपकी ताकत है। दुनिया को आपकी जरूरत आपके नैसर्गि रूप में है। स्रोत: वर्डप्रेस

बुधवार, 5 सितंबर 2012

नि:शब्‍द

Painting : Vickie Wade (UK)
शिक्षक अपनी कक्षा में पढ़ा रहे थेउसी समय बाहर से ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने की आवाज़े आने लगीं। उत्सुक शिक्षक और विद्यार्थी कक्षा छोड़ कर बाहर आए, देखा कि विद्यालय के ही दो कर्मचारी तू-तू, मैं-मैं करते हुए ऊँची आवाज़ में झगड़ रहे हैं और उनके आसपास भीड़ जमा थी। किसी तरह बीच बचाव कर के विवाद समाप्त किया गया।
शिक्षक और उनके विद्यार्थी वापस अपनी कक्षा में पहुँचे, पर झगड़े का दृश्य
देख कर उन सबका मन ख़राब हो चूका था। एक विद्यार्थी ने पूछ ही लिया, "सर, वो दोनों इतनी ज़ोर-ज़ोर से क्यों चिल्ला रहे थे ? इतनी पास से तो धीमी आवाज़ भी सुनी जा सकती थी?
इस पर शिक्षक ने जवाब दिया, "जब किसी को किसी पर ज़ोर से क्रोध आता है, तो उन दोनों के दिलों के बीच की दूरियां बहुत बढ़ जाती हैं। जब दूरियां बढ़ जाती हैं तो ना कुछ दिखाई पड़ता है, ना सुनाई पड़ता है। यही कारण है कि लड़ने वाले चिल्ला-चिल्लाकर बात करते हैं। तुम लोगों ने देखा होगा कि जब दो व्यक्तियों में संबंध अच्छे रहते हैं तो वे धीरे-धीरे बात करते हैं और एक-दूसरे की बात इसलिए सुन पाते हैं क्योंकि उनके दिलों के बीच की दूरी बहुत कम होती है। कई बार तो कुछ कहने की भी ज़रूरत नहीं होतीआंखों-आंखों में ही बात हो जाती है। जब दिलों में दूरियां नहीं होंगी तो ना ईर्ष्या होगी और ना ही क्रोध..... फिर क्यों हम किसी पर चिल्लाएंगे...।